भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हिरन / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:26, 2 जनवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विश्वनाथप्रसाद तिवारी |संग्रह=बे...' के साथ नया पन्ना बनाया)
वे बेख़बर थे
हवा में तैरते चौकड़ी भरते
गुज़र रहे थे
एक दो तीन चार पाँच...
हाँ, पाँचवाँ उस झुण्ड में सबसे ख़ूबसूरत था
शिकारी आँखों के लिए
एक गोली दगी
उसकी कोख में धाँय !
वह रुका
जैसे समय की गति रुक गई हो
उसने अपने भागते हुए साथियों की ओर देखा
जैसे तड़पता वर्तमान
भविष्य की ओर देखता हो
वह सिकुड़ा
धीरे-धीरे सिकुड़ता गया
और फिर धरती की गोद में
फैलकर सहज हो गया
निस्पन्द।
उसकी बड़ी-बड़ी आँखें !
भय, पीड़ा, मोह और जिजीविषा
में डबडबाई हुई आँखें !
वे अपने हत्यारे से पूछना चाहती थीं
कि क्यों ?