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एक-सी समीक्षाएँ / रमेश रंजक

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ओढ़ो मत अंधी मर्यादाएँ
सिर खोले फिर चाँदनी ।

दूर क्षितिज-कंधों पर झुका आसमान
लगता है संयोगी चित्र के समान
झूल रही हैं दुहरी छायाएँ
टोना-सा करे चाँदनी ।

पर्वत से घाटी तक किरणों की डोर
उलझ गया हो जैसे आँचल का छोर
छू-छू कर यौवन की उपमाएँ
झरने-सी झरे चाँदनी ।

बदचलन अँधेरे की बातूनी गँध
आवारा मौसम का अधलिखा निबन्ध
दोनों पर एक-सी समीक्षाएँ
लिख-लिख कर धरे चाँदनी ।