तन गई हैं इस क़दर युग मान्यताएँ
घुट गया है गीत का जीवन
अरे, मन !
साँस धीमे ले बढ़ेगी और जकड़न
सामने है व्यंग्य, पीछे
विष-बुझा परिहास
आदमखोर
शब्दहीन वेदना को
बींधता सायास
दुहरा शोर
खींचता है अजगरी संत्रास भूखा
मुट्ठियों में बंद खालीपन
अचेतन
धमनियों में तैर जाता बाँस का बन ।
टीसते हैं खिड़कियों के
प्रश्-सूचक चिन्ह
सारी रात
टूटता अपनत्व कुंठित
व्योम से विच्छिन्न
उल्कापात
थक गई है नब्ज जब संवेदना की
क्या करे कमज़ोर संजीवन
निवेदन
ओढ़ धूमिल धूप पीता अनमनापन।