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गगन भर प्रण / रमेश रंजक
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नाम भर अनुप्रास
जीवन भर विरोधाभास
अधलिखी लम्बी कहानी-सी
अपाहिज प्यास
मेरे पास ।
कर गई अनुबन्ध पर
हस्ताक्षर-सी
एक ख़ामोशी विजन बन की
झूल कर कुछ लहरियों पर
लौट आई
गंधहीना आरती मन की
बँध गया है
द्वार से ऋतुराज का संन्यास
मेरे पास ।
एक ठहरी बूँद पर से
तैरने की
हो गई आदी निगोड़ी शाम
धूप की शहतीर में अणु-से
बिछलते
धमनियों में स्नेह के उपनाम
गगन भर प्रण—
संधियों के परकटे विश्वास
मेरे पास ।