भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फिर बढ़ाना द्वार पर पाबंदियां /वीरेन्द्र खरे अकेला

Kavita Kosh से
Tanvir Qazee (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:41, 3 फ़रवरी 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
फिर बढ़ाना द्वार पे पाबंदियाँ
पहले सुधरा लो ये टूटी खिड़कियाँ
 
दौड़ने के गुर सिखाए किसलिए
पाँव में गर डालनी थीं बेड़ियाँ
 
वक़्त पर बिजली तो अक्सर ही गई
काम आईं घासलेटी डिब्बियाँ
 
देखकर मुझको ख़ुशी के मूड में
चढ़ गईं ज़ालिम समय की त्यौरियाँ
 
प्रार्थना करिए दरख़्तों के लिए
हैं सक्रिय छैनी, हथौड़े, आरियाँ
 
यार तू भी दूध का धोया कहाँ
हैं अगर मुझमें बहुत सी ख़ामियाँ
 
इस महीने सारा वेतन खा गए
बच्चों के बस्ते, किताबें, कॉपियाँ
 
बिन तुम्हारे ज़िन्दगी बीती है यूँ
ज्यौं फटे कंबल में बीतें सर्दियाँ