Last modified on 5 फ़रवरी 2012, at 04:03

आवाज़ों का शहर / ”काज़िम” जरवली

Kazim Jarwali Foundation (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:03, 5 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=काज़िम जरवली |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem>जब ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


जब भी क़िस्सा अपना पढना,
पहले चेहरा चेहरा पढना ।

तन्हाई की धूप में तुम भी,
बैठ के अपना साया पढना ।

आवाज़ों के शहर में रहकर,
सीख गया हूँ लहजा पढना ।

हर कोंपल का हाल लिखा है,
शाख का पीला पत्ता पढना ।

भेज के नामे याद दिला दो,
भूल गया हूँ लिखना पढना ।

लोगों मेरी प्यास का क़िस्सा,
सदियों दरिया दरिया पढना ।

दीवारों पर कुछ लिखा है,
तुम भी अपना कूचा पढना ।

हिज्र की शब् में नम आँखों से,
धुंधला धुंधला सपना पढना ।

माज़ी का आएना रख कर,
खुद को थोडा थोडा पढना ।

मैं हूँ संगे मील की सूरत,
मुझसे मेरा रस्ता पढना ।

जीस्त का मतलब क्या है "काज़िम",
अपना अपना लिखना पढना ।। ---- काज़िम जरवली