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ईश्वर कटघरे में / रश्मि प्रभा

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चिंगारी तो भड़काओ

व्यक्तिविशेष को ज़िम्मेदार ठहराओ
या भाग्य को
पर जो ज़िन्दगी के मायने ढूंढते हैं ,
उनकी आलोचना से तुम्हें क्या मिलेगा
सिक्के के किस पहलू पर अपना नज़रिया
तुम पुख्ता समझोगे ?
बाह्य और आतंरिक दो किनारे हैं
एक किनारे से दूसरे किनारे को देखना
परखना
आसान नहीं होता
और जब आसान होता है
तो कोई तर्क नहीं होता ....
क्यूँ व्यर्थ अपनी ज़िन्दगी से निकल
दूसरों का जोड़ घटाव करते हो
वक़्त जाया करते हो
जब तुम्हारा जोड़ घटाव कोई करता है
तब तो तुम अपनी सोच
अपनी विवशता
अपने अभावों के आंसू बहाने लगते हो
चीखने लगते हो
फिर भी नहीं समझते
कि जिसने उठापटक नहीं की
उसके अन्दर भी कुछ टूट रहा होगा
अगर तुम दोस्त नहीं बन सकते
तो इतनी भयानक दुश्मनी भी मत निभाओ !
अदालतों में भी सच की सुनवाई देर से होती है
यूँ कहें अधिकतर नहीं होती है
कानून की देवी भी अँधेरे में तीर मारती है
पैसे से गवाह ही नहीं
मुजरिम भी ढूंढ लिए जाते हैं
खूनी लोगों के मध्य होता है
फांसी की सज़ा किसी अनजाने को सुनाई जाती है !
हम सारे समझदार लोग इस बात से भिज्ञ हैं
फिर भी ....
जब दूसरे के घर की बेटी भागती है
या यातनाओं का दौर उसके साथ चलता है
.... जो भी होता है
तो अपनी अपनी धारणाओं की पेटी
सब खोल लेते हैं
ऐसे ऐसे शब्द बोलते हैं
कि उबकाई आने लगे
पर जैसे ही धमाका अपने घर होता है
हमारे सारे वाक्य बदल जाते हैं
और जब कुछ नहीं हाथ मिलता
तब ईश्वर कटघरे में होता है !