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हौं सखि, नई चाह इक पाई / सूरदास

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हौं सखि, नई चाह इक पाई ।
ऐसे दिननि नंद कैं सुनियत, उपज्यौ पूत कन्हाई ॥

बाजत पनव-निसान पंचबिध, रुंज-मुरज सहनाई ।
महर-महरि ब्रज-हाट लुटावत, आनँद उर न समाई ॥

चलौं सखी, हमहूँ मिलि जैऐ, नैंकु करौ अतुराई ।
कोउ भूषन पहिर्‌यौ, कोउ पहिरति, कोउ वैसहिं उठि धाई ॥

कंचन-थार दूब-दधि-रोचन, गावति चारु बधाई ।
भाँति-भाति बनि चलीं जुवति जन, उपमा बरनि न जाई ॥

अमर बिमान चढ़े सुख देखत, जै-धुनि-सब्द सुनाई ।
सूरदास प्रभु भक्त-हेत-हित, दुष्टनि के दुखदाई ॥


भावार्थ :-- (कोई गोपी कहती है-) `सखी! मैंने एक नवीन बात सुनी है कि इन्हीं दिनों ब्रजराज श्रीनन्द जी के पुत्र उत्पन्न हुआ है जिसे सब लोग कन्हैया कहते हैं । (वहाँ) नगाड़े, ढोलक, श्रृंगे, मृदंग, शहनाई आदि पाँचों प्रकार के बाजे' बज रहे हैं । ब्रजराज व्रजरानी (आज) व्रज का पूरा बाजार (उपहार में) लुटाये दे रहे हैं, उनके हृदय में आनन्द समाता नहीं हैं ! इसलिए सखी ! तनिक शीघ्रता करो ! हम सब भी एकत्र होकर वहाँ चलें ।' किसी ने आभूषण पहिन लिया, कोई पहिनने लगी और कोई जैसे थी वैसे ही उठी और दौड़ पड़ी । स्वर्ण के थाल में दूर्वा तथा गोरोचन लिये बधाई के सुन्दर गीत गाती हुई (व्रज की) युवतियाँ नाना प्रकार के श्रृंगार करके चल पड़ी , उनकी उपमा की तो उपमा नहीं की जा सकती । देवता विमानों पर चढ़े इस आनन्द को देख रहे हैं, उनके जय-जयकार करने का शब्द सुनायी पड़ रहा है । सूरदास जी कहते हैं कि मेरे प्रभु भक्तों के लिये हितकारी तथा दुष्टों के लिये दुःखदायक (उनका विनाश करने वाले) हैं ।