भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सलवा जुडूम के दरवाज़े से (1) / संजय अलंग

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:13, 22 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय अलंग |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> जंगल क...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


जंगल के बीच निर्वात तो नहीं था
सघनता के मध्य
समय दूर तक बिखरा था
और उसी से सामना था

उम्मीद की फसल जरूर उगाते
पर वह थी ही नहीं
न तब न अब
परछाइयों का टूटना असंभव है
मानव का भी

अपनी जमीन से हटे नहीं
पर हम वही करते रहे हैं
 जो कैदी करते हैं
धूल के मध्य आदम याद आता है
मैं नहीं