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सलवा जुडूम के दरवाज़े से (2) / संजय अलंग

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काल कोठरी के भयावह अंधेरे में
जीत के क्षण नहीं
रोशनी नहीं

घटाटोप कालिमा शाश्वत है
घेरे में भी और घेरे के बाहर भी
रात लंबी है
दरवाज़ा कोई नहीं

सुबह के लिए तैयारी भी नहीं है
खाने का आश्वासन नहीं दे पाता

जीने का आश्वासन
करेला नीम भी चढ़ता है और
सम्मान उछल-कूद भी चाहता है
कॅ।फी पीते हुए सल्फी क्यों याद आती है
उड़ते सफेद कबूतर
बंदूकों और सुरंगों के बीच फड़फड़ाते हैं

बाड़ के पीछे पेशाब करते सैनिक
निगरानी को चौकस हैं
अब चर्च के घंटे और

मन्दिर की घंटी
टुनटुना भी नहीं रही
ऐसे में ऋतु और रविवार चाहना भी क्या
आवाज़ मात्र क्रंदन है
प्रेम और शांति की हवा भी रोती लगती है