Last modified on 22 फ़रवरी 2012, at 13:18

सलवा जुडूम के दरवाज़े से (3) / संजय अलंग

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:18, 22 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय अलंग |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> सपने ह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


सपने हमारे जैसे नहीं हो रहे हैं
बम का छर्रा ही उत्कंठता है, विचार नहीं
बन्दूक शाश्वत है
कभी राजा पर कभी प्रजा पर
किसी के भी हाथ में हो
कहीं भी चले
मरेगा तो आदमी ही
साल, सागौन, तेन्दू भी नींदविहीन हैं
असल है, यदि यही ज़िन्दगी
तो क्यों रोती है प्रार्थना
चट्टानों से टकराकर

आँखों में विस्फोट की चिंगारी दिखती नहीं
विस्फोट सुनता नहीं
बहरापन अब बम से भी नहीं जाता
भूल जाना मरना भी
शाश्वत भरोसे को तोड़ रहा है

अनुपस्थित है हर चीज चारो ओर
बचा नहीं पा रही कविता भी
विचार को, विश्वास को, आसमान को
हदें, भूख, लालच, बन्दूक से बह रहें हैं
घेरा नहीं घेराबन्दी में
प्रेम और शांति जंज़ीर से ज़कड़ी
जुडूम के कैंप में बैठी
भात खा रहीं हैं शरणार्थियों के साथ