भले तुम पूजो मुझे भगवान कहकर
किंतु मैं खुद को पुजारी मानता हूँ।
हृदय-मंदिर में जलाए दीप सुधि का,
मैं तुम्हारे नाम का जप कर रहा हूँ।
किसी दिन मैं स्वयं आहुति बन जलूँगा,
मैं अभी तो मौन हो तप कर रहा हूँ।
भले तुम वर लो मुझे वरदान कहकर
किंतु मैं खुद को भिखारी मानता हूँ।
बना ली मन में तुम्हारी मूर्ति मैंने,
इसे श्रद्धा कहो या अपराध कह लो।
धृष्टता समझो अगर तो दंड दे दो,
या कि इस अनुराग को चुपचाप सह लो।
भले तुम भूलो मुझे अनजान कहकर,
किंतु मैं संबंध भारी मानता हूँ।
मैं निरा पाषाण था, तुमने तराशा
और मेरा रूप मनभावन गढ़ा है।
हूँ प्रखर, संपूर्ण इसका श्रेय तुमको
क्या कहूँ यह अनुग्रह कितना बड़ा है।
भले तुम खुश हो मुझे विद्वान कहकर,
किंतु मैं खुद को अनाड़ी मानता हूँ।