भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ना जाने मैं कितना रोया / नागेश पांडेय ‘संजय’
Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:22, 22 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= नागेश पांडेय 'संजय' |संग्रह= }} {{KKCatKavit...' के साथ नया पन्ना बनाया)
ना जाने मैं कितना रोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।
अंतर में जब धधकी ज्वाला,
पी न सका जब विष का प्याला।
अपने ही जीवन को साथी
जब अपने कंधों पर ढोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।
लगा न कुछ अब शेष रह गया,
केवल औघड़ वेश रह गया।
तुमको पाने की चाहत में
खुद को जब तिल-तिल कर खोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।
मन के सुख वीरान हुए जब,
अपने हक मेहमान हुए जब।
सपनों की टूटी किरचों को
हँस-हँस कर सीने में बोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।