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क्षोभ के त्योहार / सोम ठाकुर

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छोड़कर फिर
बोलती खामोशियों का हाशिया
दृष्टि से तुमने मुझे बौना किया

दृष्टि आदिम सृष्टि जैसी
जो भरे खुद में
चहकती भरी दौड़ी दोपहर
बेताब संध्याएँ
कपूरी रात की उड़ती हुई नींदे
जमी आकाश गंगायें
एक पल कुछ भी बिना बोले हुए
तुमने मुझे दुहरा दिया

हाशिया
जो तोड़ता है स्वप्न --झूले सेतु
कस्तूरी परस के
अब नही गिनते कभी जो
कसमसाते माह, बहके दिन बरस के
आज बस एकांत हम ने
क्षोभ के त्योहार से बहला लिया
दृष्टि से तुमने मुझे बौना किया