Last modified on 24 फ़रवरी 2012, at 11:53

ऋतुओं की संधि / सोम ठाकुर

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:53, 24 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सोम ठाकुर |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poem> है ऋतुओ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

है ऋतुओं की संधि
दिशायें हुई सयानी रे

दुबली --पतली धार
बही नदिया के कूलो में
बड़े हो गये शूल
शीश तक चढ़े बबूलों में
क्या जगा संकोच
जम गया बहता पानी रे

कहे ना जाए दर्द
हुआ कुछ ऐसा अंधेरों को
चंपक -- अजुरी गहे
मनौती गूँथे गज़रों को
है तन --मन कि बात
सभी जानी -अंजानी रे

थके -थके से दिखे
गगन चढ़ते सूरज राजा
कैसे बिरहा बोल
सुनाए बसवट का बाजा

पीली -पीली धूप
हुई है दिन कि रानी रे
है ऋतुओं कि संधि
दिशायें हुई सयानी रे