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मन आषाढ़ हो चला / सोम ठाकुर

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फिर
मन आषाढ़ हो चला
तैरती रुई धुनी हुई

बंद हवा लिखती हैं
दहभर पसीना
दीवारों में कसी हुई
माथे पर हाथ रखे बैठी है तबीयत होकर छुईमुई
चप्पा -चप्पा खड़ी उमस
परत -दर-परत चुनी हुई

बूँद - बूँद गलकर हम भीड़ो में
बहते हैं हिमनदी सरीखे
हम खंडित इंद्रधनु उठाए
इस्पाती भाषा में चीखे
बादामी कानो तक आकर
सुनी बात अनसुनी हुई

पुल से, चौराहों से गुज़रती नज़र ने
बोया थर्राता भटकाव
ढोता है भर पारदर्शी
माथे की नसों का तनाव
रंगहीन हो चला नगर
पिटी शाम साबुनी हुई