कठोर हुई जिंदगी / सोम ठाकुर
हमने तो जन्म से पहाड़ जिए
और भी कठोर हुई ज़िंदगी
दृष्टि खंड -खंड टूटने लगी
कुहरे कि भोर हुई ज़िंदगी
ठोस घुटन आसपास छा गई
कड़वाहट नज़रों तक आ गई
तेज़ाबी सिंधु में खटास कि
झागिया हिलोर हुई ज़िंदगी
चीख -करहों में डूबे नगर
ले आए अपराधों कि लहर
दिन - पर- दिन मन ही मन मैले हुए
क्या नई -निकोर हुई ज़िंदगी
नाखूनों ने नंगे तन छुए
दाँत और ज़्यादा पेन हुए
पिछड़े हुए है खूनी भेड़िए
खुद आदम- खोर हुई ज़िंदगी
जो कहा समय ने सहना पड़ा
सूरज को जुगनू रहना पड़ा
गाली पर गाली देती गई
कैसी मुँहज़ोर हुई ज़िंदगी
सुकराती आग नही प्यास में
रह गया 'निराला' इतिहास में
चाँदी को सॅंटी खाती गई
साहू का ढोर हुई ज़िंदगी
कानो में पिघलता सीसा भरा
क्या अन्धेपन का झरना झरा
मेघदूत-शाकुन्तल चुप हुए
यंत्रो का शोर हुई ज़िंदगी