Last modified on 25 सितम्बर 2007, at 22:42

कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी / सूरदास

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:42, 25 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग धनाश्री कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी ।<br> ज...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

राग धनाश्री

कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी ।
जो मन मैं अभिलाष करति ही, सो देखति नँद-घरनी ॥
रुनुक-झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहीं मन-हरनी ।
बैठि जात पुनि उठत तुरतहीं सो छबि जाइ न बरनी ॥
ब्रज-जुवती सब देखि थकित भइँ, सुंदरता की सरनी ।
चिरजीवहु जसुदा कौ नंदन सूरदास कौं तरनी ॥

भावार्थ :-- कन्हाई अब पृथ्वीपर दो-दो पग चल लेता है । श्रीनन्द-रानी अपने मनमें जो अभिलाषा करती थीं, उसे अब (प्रत्यक्ष) देख रही हैं । (मोहनके) चरणोंमें रुनझुन नूपुर बजते हैं जिनकी ध्वनि मनको अतिशय हरण करनेवाली है । वे बैठ जाते हैं और फिर तुरंत उठ खड़े होते हैं - इस शोभाका तो वर्णन ही नहीं हो सकता । सुन्दरताके इस अद्भुत ढंगको देखकर व्रज की सब युवतियाँ थकित हो गयी हैं । सूरदासके लिये (भवसागरकी) नौकारूप श्रीयशोदानन्दन चिरजीवी हों ।