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दरवाजे खोल रहे बौने / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

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बन्दर के हाथों में
काँच के खिलौने
क़िस्मत के दरवाज़े
खोल रहे बौने

काग़ज़ ने फैलाई
शतरंजी साज़िश
बारूदी ढेरों पर
सुलगाई माचिस

 सतरंगी सपने हैं
टाट के बिछौने

शहरों के जंगल का
निष्प्रभ है सूरज
सडकों पर घूम रहा
बौराया धीरज

मुखिया की चौखट के
आचरण घिनौने

मौसम के चेहरे पर
ठुकी हुई कीलें
वासन्ती झोकों पर
मँडराती चीलें

व्याकुल हैं आँचल के
दुधमुँहे दिठौने

बन्दर के हाथों में
काँच के खिलौने