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पुरानी हवाएँ / शिरीष कुमार मौर्य
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चन्द्र्रकान्त देवताले जी को याद करते हुए
मेरे साथ
बहुत पुराने दिनों की हवाएँ हैं
मेरे समय में ये बरसों पीछे से आती हैं
और आज भी
उतनी ही हरारत जगाती हैं
मेरे भीतर की धूल को
उतना ही उड़ाती हैं
बिखर जाती हैं
बहुत करीने से रखी हुई चीजें भी
क्या सचमुच
हवाएँ इतनी उम्र पाती हैं ?
विज्ञान के बहुश्रुत नियम से उलट
ये ज़िन्दगी की हवाएँ हैं
हमेशा
कम दबाव से अधिक की ओर
जाती हैं। -2004-