भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नायाब नगीना/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

Kavita Kosh से
Sheelendra (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:39, 13 मार्च 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐसा जीना
भी क्या जीना,
सूख न पाए कभी पसीना ।
 
चाह न थी
हीरा मोती की,
थी केवल रोटी धोती की,
फिर भी पग-पग पड़ा ज़िन्दगी
को समझौते का विष पीना ।
 
मुट्ठी भर
ईमान बचा है
उसको भी मिल रही सज़ा है,
एक यही ताज्जुब लगता है
फटा नहीं क्यों अब तक सीना ।
 
आँख उठी
कुटिया की जब-जब
डाली धूल हवा ने तब-तब
छीन ले गई वो होंठों से
हँसने का नायाब नगीना
ऐसा जीना भी क्या जीना
सूख न पाए कभी पसीना ।