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जब दुबारा कभी मिलूँ उससे / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

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जब दुबारा कभी मिलूँ उससे
अपनी पहली ग़ज़ल सुनूँ उससे

कुछ तो होगा सबब जुदाई का
पूछ कर आज क्या करूँ उससे

जब वो बाहों में मेरी आ जाए
इक सबक प्यार का पढ़ूँ उससे

जिसके एहसान में दबा हूँ मैं
किस तरह से भला लडूँ उससे

कट के आयी पतंग ये कहती है
है अनाड़ी तो क्यों उडूं उससे

जो नहीं ऐतबार के क़ाबिल
दूर ही दूर मैं रहूँ उससे

फ़ैसला मैंने कर लिया है 'रक़ीब'
कुछ न पूछूँ न कुछ कहूँ उससे