भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बनकर बंजारे / अवनीश सिंह चौहान

Kavita Kosh से
Abnish (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:38, 18 मार्च 2012 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मारे-मारे
बनकर बंजारे
फिरते-रहते
हम गली-गली

जलती भट्ठी
तपता लोहा
नए रंग ने
है मन मोहा
चाहें जैसा
मोड़ें वैसा
धरे निहाई
हम अली-बली

नए-नए-
औज़ार बनाएँ
नाविक के
पतवार बनाएँ
रही कठौती
अपनी फूटी
खा भी लेते
हम भुनी-जली

राहगीर मिल
ताने कसते
हम हैं फिर भी
रहते हंसते
अभी तुम्हारा
समय सहारा
जो सुन लेते
हम बुरी-भली