Last modified on 19 मार्च 2012, at 22:46

दो होली कविताएँ / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:46, 19 मार्च 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुदर्शन प्रियदर्शिनी |संग्रह= }} {{KKCa...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

होली

होली
यहाँ भी आती है
पर कहीं दुबकी छुपी रंगाती है
चुप के से रंग मलती है
एकाकीपन का

नहीं उठता गली में शोर
नहीं होती ठेलमठेल
नहीं धड़धड़ाते दरवाज़े
खुलने को बेताब
करने गुलाल का

इंतजार
मथ लेते थे हाथ
बाहें मन
गलियारे
आँखों ही आँखों में
हो जाता था
जन्मों का व्यापार
और लग जाते थे
मन प्राण पर
न छूटने वाले रंग
हरे लाल पीले नीले
संग-संग

पर होली यहाँ भी आती है
बंद दरवाज़ों के पीछे
बैठी अंदर ही अंदर
सुबकती रंगाती है।


होरी
रंग-रंग
अंग-अंग
गुलाल कियो रे
अनंत परंत, युगोपरंत
देखी तुम्हारी छवि
मेरे तो तन मन
संवार गइयो रे

कैसी है होत होरी
कैसे होरी के रंग रे
मेरे तो तन मन रहे
भौरे के भौरे रे

मीठी रतनार छवि
देखी न सुनहुँ कबहुँ
आज तनह मनह
जाद्यू डार गइयो रे

एक ही तेरी झलक
मन में उमंग
तन में तरंग
कैसै-कैसै
रूप उतार गयो रे

यौवन के आस-पास
उगा उल्लास हास
तन मन मेरा
आज
हुल्लै हुल्लस गइयो रे

मन में उठी तरंग
हृदय की भाखा संग
सारे गुलाल रंग
जन्मजात पात-पात
मेरे कपोल गात
रंगई रंग गयो रे