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भर आए परदेशी छालों से पाँव / राजेश शर्मा

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भर आए परदेशी छालों से पाँव, चलो लौट चलें.
दुखियारे तन-मन से गीतों के गाँव, चलो लौट चलें.
           
मितवा रह जाएगा पाँखों को भींच कहीं,
उड़ता है क्यों मनवा आँखों को मीच कहीं.
भीतर तक बींध गया मरुथल का पैनापन,
अपने ही बिरवा को आँसू से सींच कहीं.
रेतीले टीलों पर क्या देखें छाँव , चलो लौट चलें.
 
फिर सागर नयनों में खारापन छोड़ गया,
धरती को अम्बर तक लहरों से जोड़ गया.
मौसम की साजिश पर ऐसे मतभेद हुए ,
जाते-जाते माझी ,पतवारें तोड़ गया.
फिर से तूफानों में घिर आई नाव, चलो लौट चलें.
 
पलकों की सुधियों से जाने क्या बात हुई,
तन-मन सब भीग गया,ऐसी बरसात हुई.
सूरज के बदली से टूटे अनुबंध सभी,
कांधों पर दिन निकला,आँखों में रात हुई.
कब तक अंधियारों में भटकेंगे पाँव ,चलो लौट चलें.