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आईना भी मुझे बरगलाता रहा / ललित मोहन त्रिवेदी

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ग़ज़ल
आईना भी मुझे , बरगलाता रहा !
दाहिने को वो बाँया दिखाता रहा !!

दुश्मनी की अदा देखिये तो सही !
करके एहसान, हरदम जताता रहा !!

तार खींचा औ ' फिर छोड़कर,चल दिया !
मैं बरस दर बरस झनझनाता रहा !!

उसने कोई शिकायत कभी भी न की !
इस तरह से मुझे वो सताता रहा !!

मुझको मालूम था एक पत्थर है वो !
आदतन पर मैं सर को झुकाता रहा !!

ना फटा,ना बुझा, मन का ज्वालामुखी !
एक लावा सा बस खदबदाता रहा !!

देखिये तो "ललित "की ये जिद देखिये !
पायलें , पत्थरों से, गढ़ाता रहा !!