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घर (4) / मदन गोपाल लढ़ा

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दुनिया की हर कविता
शुरू होती है घर से
और घर पर ही होती है खतम
ठीक जिन्दगी की तरह
जो घूमती है
घर के इर्द-गिर्द।

बरसात में टपकती छत
दीवारों का उखड़ता पलस्तर
टूटा-फूटा फर्श
बदरंग दरवाजों के बीच
गर्व से झाँकता है घर
जिन्दगी की तरफ