भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरी कविता (1) / मदन गोपाल लढ़ा

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:13, 24 मार्च 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मदन गोपाल लढ़ा |संग्रह=होना चाहता ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


टूटता है कुछ मेरे भीतर
भावनाओं के शिलाखण्डों की
बेतरतीब बिखरी किरचें
चुभने लगती है कलेजे में
आँखों की मार्फत
पिघल उठता हूँ मैं।
शब्दों के सहारे
मैं जब-जब
उसे जोडऩे को खटता हूँ
तुम मुझे कवि और
अंतर से बिछुड़ते लावे को
कविता कहते हो।