Last modified on 24 मार्च 2012, at 13:42

आँसुओं का रंग / मदन गोपाल लढ़ा

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:42, 24 मार्च 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मदन गोपाल लढ़ा |संग्रह=होना चाहता ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


सभी लड़कियाँ
एक सरीखी होती है
रेतीले धोरों की हों
या पहाड़ी प्रदेश की
तटवर्ती इलाके की हों चाहे
मैदानी भाग की
सभी लड़कियाँ एक जैसी होती है।

खुद में सिमटती
चुनरी संभालती
सुन्दर दिखने का
जतन करती
अपने ख्वाबों को
खुद से छुपाती
रोटी बेलती
चुल्हा फँू कती
झाड़ू-पौंछा करती
सैकण्ड की सूई की तरह
अटक-अटक
कर जीती लड़कियाँ
अक्सर अनसुनी कर देती है
अपने अंतस की
सिसकियाँ।

भाषा जुदा है
रंग भी
पहनावा और खानपान भी
एक जैसे नहीं होते
मगर उनके आँसुओं का रंग
एक सरीखा होता है।