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सफर में लड़की / मदन गोपाल लढ़ा

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मेरे ठीक सामने
खिड़की के पास
बैठी है वह
अजनबी होते हुए भी
मेरे साथ है सफर में।

मैं सोच रहा हूँ ;
क्या सोच रही है वह
खिड़की में से बाहर झाँकते हुए।
मैं देख रहा हूँ उसको
लोगों से नजरें बचाते हुए
क्या वह भी इसी तरह
देखना चाहती है मुझे?

मैं पढऩा चाहता हूँ
उसके चेहरे की किताब
मैं पूछना चाहता हूँ
उसके ख्वाबों का हिसाब
मैं जानना चाहता हूँ
उसकी उदासी का राज़।

कवि हूँ मैं
इस सफर में भी
लिखना चाहता हूँ एक कविता
उसको पढ़ते हुए।