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अनाज पछोरती औरत / उर्मिला शुक्ल

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सूप से अनाज पछोरती औरत
पछोर रही थी जीवन
फटकन के साथ
अलग रही थी अपने सुख और दुःख
पछोरते पछोरते
खाली हो गया था सूप
अनाज के चंद दाने ही बचे थे सूप में
वह बीन रहे थी उन्हें
कंकर पत्थर को
बिखेर बिखेर कर
ढूढ़ रहे थी दाने
फिर आँखों में छाती धुंध
में खो गया सब कुछ
सब कुछ हो गया गड्ड मड्ड
कनकर, पत्थर, दाने
और सूप भी
और वह जोर जोर से फाटक रही थी
खाली सूप
कंकर, पत्थर और दाने
कुछ भी नही है वहां
फिर भी पछोर रही है वह
खाली सूप