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एक कविता पैदल चलने के लिए-2 / प्रभात

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जंगल से निकल कर आ रही परछाईं
आशा नहीं भी तो हो सकती है
पर कोई समझता है कि वह आशा ही है
पहाड़ से उतरती हुई परछाईं
आशा नहीं भी तो हो सकती है
पर कोई समझता है कि वह आशा ही है
गठरी सिर पर धरे जा रही परछाईं
आशा नहीं भी तो हो सकती है
पर कोई समझता है कि वह आशा ही है

जो आशा को खोजता फिरता है
उसे दुनिया की हर परछाईं में आशा दिखती है