Last modified on 11 अप्रैल 2012, at 13:36

पता न चला / रचना श्रीवास्तव

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:36, 11 अप्रैल 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रचना श्रीवास्तव }} {{KKCatKavita‎}} <poem> संघर्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

संघर्ष के चने चबाते
दाँत कब
असली से नकली हो गए
पता न चला
चौड़ा सीना ,झुकती कमर
कब हुआ ,
आँखों मे मोतिया
कब उतरा
पता न चला
पूरे घर से
कब एक 'कोना 'अपना हुआ
पता न चला
पता चल तो बस ये
के जीवन भर का अनुभव
बासी और पुराना होगया है
हमारी बातों की
किताब मे
लग चुका है दीमक
कोई कबाड़ी भी
न देगा अब दाम इसका
उम्र की चौथी अवस्था
महकाती नहीं घर को
पुराने फर्नीचर्स सा बोझ बन जाती है