भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुबकना / लीलाधर जगूड़ी

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:48, 13 अप्रैल 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = लीलाधर जगूड़ी |संग्रह=शंखमुखी शि...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुखद-दुखद या मनहूस जितने भी अर्थ होते हैं

जीवन में हँसने-रोने के

सबसे ज्यादा विचलन पैदा करता है - सुबकना

सुबकना, निजी दुख को रोना-गाना नहीं बनने देता

विलाप का कोई आरोह-अवरोह भी नहीं

जो उसे प्रलाप बनाता हो

दुख को वजन और नमी सहित

धीमे भूकंप की तरह हिला रहा होता है - सुबकना

वैसे देखा जाए तो, सुबकना

रोनेवाले की असीम एकसरता और पथराने को

कुछ कम करता दिखता है

जैसे भीतरी उमड़न भी खुद कोई उपाय सोच रही हो

चंगा होने का

किसी भारी मलबे के नीचे फफकता सुबकना

ढाल पर से मिट्टी-सा खिसकता

जैसे दूर फैले दुख के दल-दल को सुखा देगा

और धीरज घाव पर खुरंट की तरह जम आएगा

सुबकना यह भी बता रहा होता है

कि जिसे अभी बहुत दिन साथ लगे रहना है सगे की तरह

उस अपने ही दुख को तुरंत बाहर कैसे किया जाए

गहरे कहीं दबा-डूबा वह सुबकना

जगत तक भर आए सूखे कुएँ-सी

आंखों में

कोई रास्ता तलाश रहा है विसर्जित होने का।