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कूक ! नहीं... / सुमन केशरी

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कूक ! नहीं...
इतनी सुबह
कोयल की यह कूक कैसी

आम के पत्तों-बौरों में छिपी
मदमाती, लुभाती
गूँजती कूक नहीं

एक विकल चीख़
जोहती
पुकारती
जाने किसे ?

आकाश निरभ्र
और कोई स्वर नहीं
न पक्षियों की चहचहाहट
न किसी बच्चे के रोने की आवाज़

उस बियाबान में
एकाकी खड़े पेड़ के पत्तों-बौरों में
छिपी एक कोयल शायद
और उसकी चीख़
कूक नहीं... कूख नहीं...