भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खेलत बनैं घोष निकास / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:28, 26 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} खेलत बनैं घोष निकास ।<br> सुनहु स्याम चतुर-सिरो...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खेलत बनैं घोष निकास ।
सुनहु स्याम चतुर-सिरोमनि, इहाँ है घर पास ॥
कान्ह-हलधर बीर दोऊ, भुजा-बल अति जोर ।
सुबल, श्रीदामा, सुदामा, वै भए, इक ओर ॥
और सखा बँटाइ लीन्हे, गोप-बालक-बृंद ।
चले ब्रज की खोरि खेलत, अति उमँगि नँद-नंद ॥
बटा धरनी डारि दीनौ, लै चले ढरकाइ ।
आपु अपनी घात निरखत खेल जम्यौ बनाइ ॥
सखा जीतत स्याम जाने, तब करी कछु पेल ।
सूरदास कहत सुदामा, कौन ऐसौ खेल ॥

भावार्थ :-- (सखाओंनेकहा-) `चतुर शिरोमणि श्यामसुन्दर ! सुनो । यहाँ तो घर पास है, ग्रामके बाहर मैदान मैं खेलते बनेगा (खेलनेकी स्वच्छंतता रहेगी)।' कन्हाई और श्रीबलराम- ये दोनों भाई जिनकी भुजाएँ बलवान् थी और जो स्वयं भी अत्यन्त शक्तिमान थे,एक दलके प्रमुख हो गये । सुबल, श्रीदामा और सुदामा दूसरी ओर हो गये ।गोपबालकोंके समूहके दूसरे सखाओंका भी बँटवारा करा लिया । श्रीनन्दनन्दन बड़ी उमंगमें भरकर व्रजकी गलियों में खेलते हुए (ग्रामके बाहर) चल पड़े । (बाहर जाकर ) गेंद पृथ्वीपर डाल दिया और उसे लुढ़काते हुए ले चले । सब अपना-अपना अवसर देखते थे, खेल भली प्रकार जम गया । श्यामसुन्दरने देखा कि सखा जीत रहे हैं, तब कुछ मनमानीकरने लगे । सूरदासजी कहते हैं कि (उनकी मनमानी देखकर) सुदामाने कहा--`ऐसाबेईमानीका) खेल कौन खेले ।'