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मैं चाहता हूँ / अशोक कुमार पाण्डेय

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मैं चाहता हूँ
एक दिन आओ तुम
इस तरह
कि जैसे यूँ ही आ जाती है ओस की बूँद
किसी उदास पीले पत्ते पर
और थिरकती रहती है देर तक

मैं चाहता हूँ
एक दिन आओ तुम
जैसे यूँ ही
किसी सुबह की पहली अँगड़ाई के साथ
होठों पर आ जाता है
वर्षों पहले सुना कोई सादा-सा गीत
और पहले चुम्बन के स्वाद-सा

मैं चाहता हूँ
एक दिन यूँ ही
पुकारो तुम मेरा नाम
जैसे शब्दों से खेलते-खेलते
कोई बच्चा रच देता है पहली कविता
और फिर
गुनगुनाता रहता है बेख़याली में

मैं चाहता हूँ
यूँ ही किसी दिन
ढूँढ़ते हुए कुछ और तुम ढूँढ़ लो मेरे कोई पुराना-सा ख़त
और उदास होने से पहले देर तक मुस्कराती रहो

मै चाहता हूँ यूँ ही कभी आ बैठो तुम
उस पुराने रेस्तराँ की पुरानी वाली सीट पर
और सिर्फ़ एक कॉफ़ी मँगाकर
दोनों हाथों से पियो बारी-बारी

मैं चाहता हूँ इस तेज़ी से भागती समय की गाड़ी के लिए कुछ मासूम-से
कस्बाई स्टेशन