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वैश्विक गाँव के पंच-परमेश्वर / अशोक कुमार पाण्डेय

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पहला
कुछ नहीं ख़रीदता
न कुछ बेचता है
बनाना तो दूर की बात है
बिगाड़ने तक का शऊर नहीं है उसे
पर तय वही करता है
कि क्या बनेगा -- कितना बनेगा -- कब बनेगा
ख़रीदेगा कौन - कौन बेचेगा

दूसरा
कुछ नहीं पढ़ता
न कुछ लिखता है
परीक्षायें और डिग्रियाँ तो ख़ैर जाने दें
क़िताबों से रहा नहीं कभी उसका वास्ता
पर तय वही करता है
कि कौन पढ़ेगा -- क्या पढ़ेगा -- कैसे पढ़ेगा
पास कौन होगा -- कौन फेल

तीसरा
कुछ नहीं खेलता
ज़ोर से चल दे भर
तो बढ़ जाता है रक्तचाप
धूल तक से बचना होता है उसे
पर तय वही करता है
कि कौन खेलेगा -- क्या खेलेगा -- कब खेलेगा
जीतेगा कौन -- कौन हारेगा

चौथा
किसी से नहीं लड़ता
दरअसल ’शुद्ध ’शाकाहारी है
बंदूक की ट्रिगर चलाना तो दूर की बात है
गुलेल तक चलाने में काँप जाता है
पर तय वही करता है
कि कौन लड़ेगा -- किससे लड़ेगा -- कब लड़ेगा
मारेगा कौन -- कौन मरेगा

और
पाँचवाँ
सिर्फ़ चारों का नाम तय करता है ।