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आत्मनिर्भरता / अजय मंगरा
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चिथड़ो में मैं आज,
साठ वर्षों बाद।
फिर भी,
ठुकराता हूँ,
बढ़े हुए कर-पृष्ठ तेरे,
कर-तल होने में जो
तत्पर हैं।
होना नहीं चाहता मैं
बाध्य कभी,
समय-विभाग के अनुसार
मेरे चलने में।
और न
होने देना चाहता मैं
लांछित कभी
खुद के ज़मीर को
अनुयायी तेरा बन कर
क्योंकि प्यास मेरी
घटेगी नहीं, बढ़ेगी
अर्धभरा गिलास लेकर
जिस में
स्वार्थ कपट की बू है,
षड्यंत्र-चक्रव्युह है।