चली ब्रज घर-घरनि यह बात / सूरदास
राग कान्हरौ
चली ब्रज घर-घरनि यह बात ।
नंद-सुत सँग सखा लीन्हें, चोरि माखन खात ॥
कोउ कहति, मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ ।
कोउ कहति, मोहि देखि द्वारैं, उतहिं गए पराइ ॥
कोउ कहति किहिं भाँति हरि कौं, देखौं अपने धाम ।
हेरि माखन देउँ आछौं, खाइ कितनौ स्याम ॥
कोउ कहति, मैं देखि पाऊँ, भरि धरौं अँकवारि ।
कोउ कहति, मैं बाँधि राखौं, को सकै निरवारि ॥
सूरप्रभु के मिलन कारन, करति बुद्धि बिचार ।
जोरि कर बिधि कौं मनावति, पुरुष नंद-कुमार ॥
व्रजके घर-घरमें यह चर्चा चलने लगी कि नन्दनन्दन साथमें सखाओंको लेकर चोरीसे मक्खनखाते हैं । कोई गोपी कहती है--`मेरे घरमें अभी दौड़कर घुस गये थे । ` कोई कहती है -`मुझे द्वारपर देखकर (जिधरसे आये थे) उधर ही भाग गये ।' कोई कहती है-`मैं कैसे अपने घरमें उन्हें देखूँ? और श्यामसुन्दर जितना खायँ, भली प्रकार देखकर उतना ही अच्छा मक्खन उन्हें दूँ?' कोई कहती-` यदि मैं देख पाऊँ तो दोनों भुजाओंमें भरकर पकड़ लूँ।' कोई कहती है -`मैं बाँधकर रख लूँ, फिर उन्हें कौन छुड़ा सकता है?' सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामी से मिलने के लिये सब अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करती हैं और दोनों हाथ जोड़कर विधातासे मनाती हैं -`हमें नन्दनन्दन ही पतिरूपमें मिलें ।'