भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँगि लेहु जो भावै प्यारे / सूरदास

Kavita Kosh से
198.190.230.62 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 00:26, 29 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} माँगि लेहु जो भावै प्यारे ।<br> बहुत भाँति मेवा...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माँगि लेहु जो भावै प्यारे ।
बहुत भाँति मेवा सब मेरैं, षटरस ब्यंजन न्यारे ॥
सबै जोरि राखति हित तुम्हरैं, मैं जानति तुम बानि ।
तुरत-मथ्यौ दधिमाखन आछौ, खाहु देउँ सो आनि ॥
माखन दधि लागत अति प्यारौ, और न भावै मोहि ।
सूर जननि माखन-दधि दीन्हौ, खात हँसत मुख जोहि ॥

भावार्थ :-- (माता ने कहा-)`प्यारे लाल ! जो रुचे, वह माँग लो । मेरे घर बहुत प्रकार के सभी मेवे हैं, षटरस भोजन के पदार्थ अलग रखे हैं । यह सब तुम्हारे लिये ही मैं एकत्र कर रखती हूँ, क्योंकि तुम्हारा स्वभाव मैं जानती हूँ । तुरंत के मथे दही से निकला अच्छा मक्खन है; उसे लाकर देती हूँ, खा लो ।' (श्यामसुन्दर बोले-) `मुझे मक्खन और दही अत्यन्त प्रिय लगता है और कुछ मुझे रुचता नहीं ' सूरदास जी कहते हैं कि मैया ने दही-मक्खन दिया; उसे खाते हुए हँस रहे हैं, माता उनका मुख देख रही है ।