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विकल्पहीन / मनोज कुमार झा
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इधर नींद नहीं आती
छूटा हुआ घर नींद की किवाड़ पर रात भर पटकता लिलार
लगने जा रही साँकल खुल-खुल जाती हींग की महक से
लगता है किसी खुल क़ब्र में फँस गया हवाएँ डाल रहीं मिट्टी
यहाँ जो जिन्नात पोसते हैं सब हैं पहुँच से दूर
सोच कर ही दूँ फ़ोन यहाँ दिन नहीं कट पा रहे
जहाँ भी जाता हूँ तलवे आँगन की मिट्टी खोजते हैं
अब मैं लौट रहा हूँ नहीं होगा पैसे-वैसे का बन्दोबस्त
वहाँ अपनी ही तरफ़ का बच्चा फ़ोन पर था
माँ मैं ठीक हूँ भरपेट खा रहा हूँ इन दिनों
छोटका को पढ़ाते रहना
मैं बचा कर लाऊँगा कुछ पैसा ज़रूर
अब मैं किस मुँह से फ़ोन करता
वो दस के नीचे और मैं तीस पार का
मेरा भी छोटा भाई पिता असमय वृद्ध