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बिन पैसे के दिन / मनोज कुमार झा

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ऐसे ही घूमते रहना काम माँगते धाम बदलते
पॉलीथीन के झोले के तरह नालियों में बहता
कभी किसी पत्थर से टकराता कभी मेढ़क से
इस कोलतार के ड्रम से निकल उस कोलतार के ड्रम में फँसता

कभी नवजात शिशु की मूत्र-ध्वनि-सी बोलता
कि आवाज़ से सामने वाले की मूँछ के बाल न हिले
कभी तीन दिन से भूखे कौए की तरह हाँक लगाता
कि कोई पेड़ दो-चार पके बेर फेंक दे

पुजारी को तो यहाँ तक कहा कि आप थाल
में मच्छर भगाने की चकरी रखेंगे तो
उसे भी आरती मानूँगा और मनवाने की कोशिश करूँगा
बस एक बार मौक़ा दे दें इस मर्कट को
कसाईबाड़ा गया कि मैं जानवरों की खाल गिन दूँगा
आप जैसे गिनवाएँगे वैसे गिनूँगा आठ के बाद सीधे दस
हुजूर! आप कहेंगे तो मैं अपने पाँच बच्चों को दो गिनूँगा

रोटी मेरे हाथ की रेखाओं पर हँसती है और
सब्ज़ी मुझसे मेरी क़ीमत पूछती है
मैं क्या कर रहा हूँ !
काम माँग रहा हूँ या भीख
या उस देश में प्रवेश कर गया हूँ
जहाँ दूर देश से आई भीख का हिस्सा चुराकर कोई मुकुट पहन सकता है
और जिसके घर का छप्पर उड़ गया
वो अगर कुछ माँगे तो उसकी चप्पल छीन ली जाती है ।

इतने लोगों से काम माँग चुका हूँ इतने तरीकों से
कि अब माँगने जाता हूँ तो ये लोग ताड़ के पेड़ पर बैठे
गिद्ध की तरह लगते हैं ।
जैसे वेश्याओं को एक दिन सारे मर्द
ऊँट की टाँग की तरह दिखने लगते है ।