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बन में आवत धेनु चराए / सूरदास

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राग गौरी

बन में आवत धेनु चराए ।
संध्या समय साँवरे मुख पर, गो-पद-रजि लपटाए ॥
बरह-मुकुट कैं निकट लसति लट, मधुप मनौ रुचि पाए ।
बिलसत सुधा जलज-आनन पर उड़त न जात उड़ाए ।
बिधि-बाहन-भच्छन की माला, राजत उर पहिराए ॥
एक बरन बपु नहिं बड़-छोटे, ग्वाल बने इक धाए ।
सूरदास बलि लीला प्रभु की, जीवत जन जस गाए ॥

भावार्थ :-- (श्याम) वन से गायें चराकर आ रहे हैं । संध्या के समय उनके साँवले मुख पर गायों के खुर से उड़ती धूलि लगी है । मयूरपिच्छ के पास अलकें ऐसी शोभा देती हैं मानो भौंरे अमृतपूर्ण खिले कमल के समान मुख के चारों ओर रुचिपूर्वक बैठे हैं और उड़ाने से भी उड़ते नहीं । हृदय पर मोतियों की माला पहन रखी है, जो (बड़ी) शोभा दे रही है । सभी गोपबालक एक समान रंग-रूप तथा अवस्था के हैं, कोई बड़ा-छोटा नहीं है, सब साथ दौड़ते हुए शोभित हो रहे हैं । सूरदास अपने स्वामी की इस लीला पर बलिहारी है, यह सेवक तो उनका यशोगान करके ही जीता है ।