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फागुन के आते ही / नंद चतुर्वेदी

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फागुन के आते ही
हमारा नींबू सहस्त्रों छोटे पत्तों
फूलों से दमदमाने लगता है
सुगन्ध से प्रमत्त हवाओं के दिन
मुँडेर पर बैठ जाते हैं
छोटी चिड़िया-से गरदन उठाये

पौष में किसे मालूम था यह होगा
ठण्ड से काँपते, निर्जीव पेड़
हिलने लगेंगे
हरे, नये और ताजा दम

हजारों बार यही हुआ है
पृथ्वी !
तुम ने दी है ठण्डे, पपड़ाये
धूल-धूसरित
पेड़ों पठारों को
खिलखिलाती हँसी
रोशनी का समुद्र और वसन्त
ठिठुरता हुआ भूखण्ड
बदल गया है
रंगों की आतिशबाजी में
पृथ्वी !
तुम कितनी नयी होती हो
उर्वरा और उत्फुल्ल

कितनी तरह देती हो
रूप, आकार
बदलती हो ताल, लय, छन्द
त्रिकाल।