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आखिरी टैम्पो में / नंद चतुर्वेदी

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उसका मुँह अच्छी तरह नहीं देखा
जब वह टैम्पो में चढ़ी
वह सिकुड़ कर बैठी रही
कोई सटकर न बैठे इस उम्मीद में
सब सटकर बैठे थे
नागरिक जन
चरित्र/उजले कपड़े वाले

जब वह टैम्पो पर चढ़ी
मुझे कुछ नजर नहीं आया
हाँफती हुई घबराहट
जो प्रायः माँ को होती थी
सीने पर रखा हाथ
जिसकी फूली हुई नसें
दूर से दिखाई देतीं

उसके चेहरे पर सिर्फ
लम्बी नाक थी
जो मुझे नजर नहीं आयी
जब वह टैम्पो पर चढ़ी

अब ज़िन्दगी इतनी बेरहम हो गयी है
सौन्दर्य रहित
मैं उस स्त्री के सम्बन्ध में सोचता हूँ
जब वह मेरे सामने होती है
एक गठरी की तरह बैठी हुई कहीं भी
आखिरी टैम्पो में
रात लौटती
अपने उदास बच्चों के लिए
सही सलामत
चुपचाप
कोई कुत्ता भी न भौंके

इस तरह सुबह हो
और लगे कि
बहरहाल किसी दंगे-फसाद में
मारी नहीं गयी।