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आँखें / विजेन्द्र

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किसके पाँव पखारूँ भाया
किसकी करूँ मनौती
जिसको भी गले लगाऊँ
करता दिखे कनौती
कच्चे जामुन भरे घूमता
कहता ले-लो रीठे
सभी कौंजरे चिल्लाते हैं
उनके बेर है मिठे।
किसके काम बिगारूँ भाया
किसकी मारूँ भाँजी
मीर-मीर जो कहते घूमें
लगते असली पाजी
जिसको मुँह लटकाता
हार रहे हैं बाजी।
दिन कटता तो
रात घनी है
जिसको वो सींची बताता
धरती खून सनी है।
कितना कचरा फैंकूँ भाया
कितना कीच निथारूँ
बात-बात में लँगड़ी मारे
बाल की खाल निकाले
वो है मीर, मोहम्मद, मूसा
ऐसे सपने पाले
धरम गुरू तो रँगे स्यार हैं
विषधर काले-काले
नहीं दिखाई देते समनक
आस्तीन में पाले
किन आँखों से देखूँ भाया
पुरे हुये हैं जाले।

2001