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कहौ तौ माखन ल्यावैं घर तैं / सूरदास

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राग बिहागरौ


कहौ तौ माखन ल्यावैं घर तैं ।
जा कारन तू छोरति नाहीं, लकुट न डारति कर तैं ॥
सुनहु महरि ! ऐसी न बूझियै, सकुचि गयौ मुख डर तैं ।
ज्यौं जलरुह ससि-रस्मि पाइ कै, फूलत नाहिं न सर तैं ॥
ऊखल लाइ भुजा धरि बाँधी, मोहनि मूरति बर तैं ।
सूर स्याम-लोचन जल बरषत जनु मुकुताहिमकर तैं ॥

भावार्थ :-- (गोपियाँ कहती हैं-) `यशोदा जी! जिसके लिये तुम (मोहन को) खोलती नहीं हो और हाथ से छड़ी नहीं रख रही हो, वह मक्खन कहो तो हम अपने घर से ला दें । व्रजरानी ! सुनो, ऐसा तुम्हें नहीं करना चाहिये; (देखो तो) इसका मुख भय से (उसी प्रकार) कुम्हिला गया है, जैसे चन्द्रमा की किरणें पड़ने से कमल सरोवर में प्रफुल्लित नहीं हो पाता । (हाय-हाय) इस श्रेष्ठ मोहिनी मूर्ति के हाथ ऊखल से लगाकर तुमने बाँध दिये हैं ।' सूरदास जी कहते हैं--श्यामसुन्दर के नेत्रों से इस प्रकार आँसू की बूँदें टपक रही हैं, जैसे चन्द्रमा से मोती बरसते हों ।