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जसुमति रिस करि-करि रजु करषै / सूरदास

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राग सोरठ

जसुमति रिस करि-करि रजु करषै ।
सुत हित क्रोध देखि माता कैं, मन-हीं-मन हरि हरषै ॥
उफनत छीर जननि करि ब्याकुल, इहिं बिधि भुजा छुड़ायौ ।
भाजन फोरि दही सब डार्‌यौ, माखन-कीच मचायौ ॥
लै आई जेंवरि अब बाँधौं, गरब जानि न बँधायौ ।
अंगुर द्वै घटि होति सबनि सौं, पुनि-पुनि और मँगायौ ॥
नारद-साप भए जमलार्जुन, तिन कौं अब जु उधारौं ।
सूरदास-प्रभु कहत भक्त हित जनम-जनम तनु धारौं ॥


भावार्थ :-- यशोदा जी क्रोध करके बार-बार रस्सी खींच रही हैं । अपने पुत्र की भलाई(उसके सुधार) के लिये माता का क्रोध देखकर श्याम मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे हैं । उफनते दूध के बहाने माता को व्याकुल करके मोहन ने हाथ छुड़ा लिया और बर्तन फोड़कर सारा दही ढुलका दिया तथा मक्खन (भूमि पर गिराकर ) उसकी कीच मचा दी। (इससे और रुष्ट होकर माता) रस्सी ले आयी कि `अब तुम्हें बाँधती हूँ ; किंतु (बाँधने का) गर्व समझकर बन्धन में नहीं आये । (माता ने) बार-बार और रस्सियाँ मँगायी; किंतु सभी दो अंगुल छोटी ही पड़ जाती थीं, सूरदास जी कहते हैं, मेरे प्रभु (मन-ही-मन कहने लगे-`देवर्षि नारद जी के शाप से (कुबेर के पुत्र) यमलार्जुन (सटे हुए अर्जुन के दो वृक्ष हो गये हैं, इनका अब उद्धार कर दूँ; क्योंकि मैं तो भक्तों के लिये ही बार-बार अवतार लेकर शरीर धारण करता हूँ ।'