कांगड़ी / अग्निशेखर
Kangri
जाड़ा आते ही वह उपेक्षिता पत्नी सी
याद आती है
अरसे के बाद हम घर के कबाड़ से
उसे मुस्कान के साथ निकाल लाते हैं
कांगड़ी उस समय
अपना शाप मोचन हुआ समझती है
उस की तीलियों से बुनी
देह की झुर्रियों में
समय की पड़ी धूल
हम फूँक कर उड़ाते हैं
ढीली तीलियों में कुछ नई तीलियाँ भी डलवाते हैं।
वह समझती है
कि दिन फिरने लगे हैं
हम देर तक रहने वाले कोयले पर
उस में आंच डालते हैं
धीरे धीरे उत्तेजित हो कर
फूटने लगता है उस की देह से संगीत
जिसे अपनी ठंड की तहों में
उतारने के लिए हम
उसे एक आत्मीयता के साथ
अपने चोगे के अन्दर वहशी जंगल में लिए फिरते हैं।
और जब रात को बुझ जाती है कांगड़ी
हम अनासक्त से हो कर
उसे सवेरे तक
अपने बिस्तर से बाहर कर देते हैं
कांगड़ी अवाक् देखती है हमें रात भर
आदमी हर बार
ज़रूरत के मौसम में उसे फुसलाता है
परन्तु नहीं सोचता कभी वह
उलट कर उस के बिस्तर में
भस्म कर जाएगी सदा की बेहूदगियाँ।